'दंगल' का बापू हानिकारक नहीं, क्रांतिकारक है !
दावे से तो नहीं कह सकती लेकिन मैंने कभी किसी लड़के या लड़की को ये कहते हुए नहीं सुना कि उसकी अपनी मां से नहीं बनती या कोई वैचारिक मतभेद हैं. हमेशा पिता ही इस ईगो की लड़ाई में एक पार्टी होता है. इतिहास ने भी बाप-बेटे में लड़ाइयां देखी हैं. समाज भी देखता आ रहा है. हक़, इज़्ज़त और 'मैं' के ये भाव पिता में ही ज़्यादा देखे जाते हैं. पितृसत्ता की एक शाखा यह भी मानी जा सकती है.
फ़िल्म 'दंगल' का महावीर फोगाट शायद उसी 'ईगो' और सख्ती से काम लेता है जैसा आमतौर पर हर पिता. लेकिन फिर भी इस आम व्यक्ति में हम सबका हीरो होने के लिए गुंजाइश बनी रहती है. क्योंकि हम उसमें वह देख पा रहे हैं जो शायद हम अपने पिताओं में देखना चाहते थे. क्रांति भी तो सापेक्ष (रिलेटिव) है और नज़रिये से मुक्त नहीं है. इस पिता को देखने के दो नज़रिये बिल्कुल हो सकते हैं. हम सब इस फ़िल्म को एक बच्चे के नज़रिये से नहीं देख पाये. गौर से देखते तो पाते कि एक आम इंसान जितनी कमज़ोरियां और कमियां इस पिता में भी मौजूद हैं.
हमें ना पिता की कमज़ोरियां नज़र आयीं और ना उनका घमंड. इस नज़रिये के लिए स्कोप भी कम ही रखा गया था. हम सबने इस पिता को ही हीरो माना क्योंकि हम अपने पिता में उस क्रांति के लिए हिम्मत और सहयोग देखना चाहते हैं जो महावीर फोगाट ने अपनी बेटियों के लिए दिखाया. ऐसी जगह पहली बार ऐसा कदम उठाया जहां की लड़कियों के लिए घर से बाहर पहला कदम ससुराल के लिए तय होता है. हो सकता है कि आज लड़कियां कामयाब हो गयी तो इसलिए हम सब उनके पिता की तारीफ़ कर रहे हैं लेकिन कामयाब ना भी होतीं तो क्या योगदान कम होता? बात यहां सिर्फ पिता और उसकी बेटियों तक सीमित नहीं रह जाती, सिर्फ पिता के सपनों तक सीमित नहीं रह जाती बल्कि समाज में एक विमर्श और साहस को जन्म देती है.
जब 2016 ओलिंपिक्स चल रहे थे और बबीता कुमारी का मैच कुछ घंटे बाद होने वाला था. तब लिखा था कि एक पिता की हिम्मत कितनी बेटियों की राह आसान कर देती है. ओलिंपिक्स शुरू होने से पहले पापा ने यूं ही एक दिन महावीर फोगाट का ज़िक्र छेड़ा और मुझसे कहा कि 'देखो, वो पहलवान महावीर फोगाट पर फिल्म बन रही है और इस फ़िल्म में आमिर खान है.' फिर मां की ओर देख कर कहा कि 'सोचो, जब उसने उस ज़माने में अपनी सभी बेटियों को पहलवान बनाने का सोचा होगा, तब गांव वालों ने क्या-क्या नहीं कहा होगा उसे. कोई ताने के लहज़े में कहता होगा कि 'हाँ, यो बनावेगा छोरियां ने पहलवान!' किसी रिश्तेदार ने ज़रूर सलाह दी होगी कि इनकी शादी होनी मुश्किल हो जाएगी. लेकिन फिर भी उसने सुनी नहीं और सभी बेटियों को पहलवानी में उतारा. आज देखो, बेटियां मैडल जीत रही हैं, लोग फिल्म बना रहे हैं.'

राजनीति में स्मृति
कई लोगों के लिए ये हैरानी का विषय था जब स्मृति ईरानी को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। जबसे नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं और बीजेपी सत्ता में आई है तभी से कई विरोधाभास देखने को मिल रहे हैं। लेकिन इस समय स्मृति ईरानी की शिक्षा सोशल मीडिया पर लोगों के लिए बहस का मुद्दा बानी हुई है। विरोध करने वाले और पक्ष में कहने वाले दोनों ही अपनी बातों में कुतर्कों का सहारा ले रहे हैं।
क्या ये तर्क प्रयाप्त है कि कुछ महान लोग पढ़े लिखे नहीं थे पर उन्होंने महान कार्य किये? और उन्होंने महान कार्य किये तो इसलिए आप पढ़े लिखे नहीं हैं तो चलेगा। सारे साक्षर अभियान ख़त्म कर दीजिये इस तर्क पर। इस हिसाब से आप अपनी शिक्षा सबंधित हलफनामा कहीं भी जमा नहीं करवाइये, इसकी ज़रूरत क्या है कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए भी? लेकिन ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि ये एक फ़िल्टर की तरह काम करता है। हिंदुस्तान की शिक्षा पद्धति की खामी ही यही है कि आप किसी के बौद्धिक स्तर को, उसकी समझ को उसकी डिग्री से, उसके नंबरों से नहीं आंक सकते। देखते हैं कि स्मृति ईरानी इस पद्धत्ति में क्या अंतर ला पाएंगी।
स्मृति ईरानी को जनता ने कभी सांसद बनने लायक नहीं समझा लेकिन प्रधानमंत्री ने उन्हें पूरे भारत के मानव संसाधन मंत्री के तौर पर चुना है। लेकिन मुझे कहीं भी लोकतंत्र का, बहुमत के फैसले का हवाला देने वाले लोगों की आवाज़ें नहीं सुनाई दे रही। ये मुझे मेरे मित्र नितिन की कही हुई बात याद दिल रहा है कि ये लोकतंत्र नहीं लोकतांत्रिकनुमा सिस्टम है। क्योंकि हमने मनमोहन सिंह को नहीं चुना था, उन्हें सोनिया गांधी ने चुना था। हमने सोनिया गांधी को भी कांग्रेस की अध्यक्षा के रूप में नहीं चुना था जो सरकार के फैसलों पर मुहर लगाती रहीं। यही सिलसिला जारी है बदली हुई सरकार में भी।
स्मृति ईरानी को ही क्यों घेरा जा रहा है शिक्षा के मसले पर। क्या भारत की राजनीति में ऐसे उदाहरण और नहीं है ? कितने ही सांसद है जिन्हे जनता ने चुना है उनकी शिक्षा और यहाँ तक की तमीज का स्तर देखे बिना। क्या इसका कारण ये है कि वो महिला हैं ? हो सकता है इसलिए कि उनकी पृष्ठभूमि एक मॉडल की है और इसलिए सीधे तौर पर महिला विरोधी बयान से बच कर ये रुख अपनाया है। अतीत में कांग्रेस के नेता संजय निरुपम एक चैनेल डिबेट के दौरान स्मृति ईरानी के पृष्टभूमि को लेकर छिछली टिप्पणी कर चुके हैं। बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी पर उनकी डिग्री को लेकर सवाल खड़े करते रहे हैं। यहाँ तक कि उनकी पृष्ठभूमि और वो क्या काम करती थीं इस मसले को भी वक़्त बेवक़्त उछाला जाता रहा है।
लेकिन क्या ये लोगों के तर्कों का ही मसला है? ADR संस्था की वेबसाइट पर लोकसभा चुनाव 2004 के डेटा को आप खँगालेंगे तो पाएंगे कि स्मृति ईरानी ग्रेजुएट हैं। उन्होंने यही हलफनामा दिया है। लेकिन 2014 चुनावों के हलफनामे के अनुसार स्मृति ईरानी ग्रेजुएट नहीं हैं। बैचलर ऑफ़ कॉमर्स पार्ट 1 उन्होंने पढ़ा है जो की कोई डिग्री नहीं है और इसे वहां लिखे जाने की भी ज़रूरत नहीं थी। क्या ये फर्जीवाड़ा नहीं है ? क्या मंत्री की पॉलिसी चुनाव को आप इस बात का संज्ञान लेकर नहीं देखेंगे ?
एक समय था जब स्मृति ईरानी धरने पर बैठी थीं और मोदी जी का इस्तीफा मांग रही थीं लेकिन बाद में पार्टी दबाव के कारण उठ गयीं। तब तक कोई कोर्ट का फैसला नहीं आया था। जितना फुटेज चाहिए था वो ले लिया था पर फिर राजनितिक भविष्य बचाये रखने के लिए पलटी मार दी थी। आज के समय में इसे "ड्रामा" कहा जाता है। तब इसे "धरना" कहा जाता था। राजनितिक भविष्य के लिए, पार्टी के दबाव में आने वाले मंत्री का पॉलिसी चुनाव को आप इस बात का संज्ञान लेकर नहीं देखेंगे ?
मिडिल क्लास इस मुद्दे को उछालते रहे हैं कि निरक्षर लोग, काम पढ़े लिखे लोग क्यों हमारे देश को चला रहे हैं। मुझे जनता की सोच पर अब ज़्यादा भरोसा रहा नहीं क्योंकि अगर मोदी जी सचिन तेंदुलकर को मंत्री बना देते तो उनकी शिक्षा के बारे में नहीं पूछा जाता। किस मंत्रालय के लायक है या नहीं ये भी नहीं पूछा जाता।
नज़रिये को अच्छे औए बुरे की श्रेणी में मत बाँटिये क्योंकि नजरिया सिर्फ अच्छा या बुरा नहीं होता, ये किसी के लिए अच्छा और किसी के लिए बुरा होता है। ये तो आप देख ही रहे होंगे।
क्या किरण को अपना पायेगी दिल्ली भाजपा?
किसी भी पार्टी की सबसे छोटी इकाई उसका कार्यकर्ता होता है, लेकिन अपनी 'हाईकमान' को ज़मीनी हक़ीक़त से वाकिफ़ भी वही कराता है। बीजेपी ने चुनाव से 20 दिन पहले किरण बेदी को मैदान में उतार कर अपना मज़बूत और आश्चर्यजनक दांव चल तो दिया है, लेकिन क्या दिल्ली भाजपा के कार्यकर्ता पार्टी के फैसले से सहमत हैं? जो दिल्ली में हाल फिलहाल हो रहा है उससे कम से कम ये ज़ाहिर है कि कार्यकर्ताओं में अपनी नई उम्मीदवार को लेकर उत्साह नहीं है।
पार्टी में शामिल होने के अगले दिन ही कार्यकर्ताओं से अपनी पहली बैठक में बेदी ने जो लहज़ा और तेवर दिखाया, उसी दिन लगने लगा था कि पार्टी के हाईकमान ने बेदी को ठीक तैयारी से नहीं भेजा। किरण बेदी कार्यकर्ताओं को डपटती और खुद को सुनने के फरमान देती नज़र आई। जहां एक तरफ नरेंद्र मोदी कार्यकर्ताओं को अपनी जीत का हिस्सेदार बनाते हैं, वहां इतनी तल्खी कार्यकर्ताओं में बैठक के दौरान सुगबुगाहट पैदा करने के लिए काफी थी।
किरण बेदी के बाद दिल्ली भाजपा के नेता दूसरी पार्टियों से आने वाले लोगों का स्वागत करते रह गए। किरण बेदी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाया गया और अपने पुराने सत्ता संघर्षरत नेताओं को किनारे लगा कर दूसरी पार्टियों के लोगों को टिकट भी दिया गया। अनुभव नहीं होने की वजह से किरण बेदी राजनैतिक विनम्रता और शिष्टाचार से वाकिफ नहीं हैं तभी हर्षवर्धन को नाराज़ कर बैठीं। हर्षवर्धन के पूर्व विधानसभा क्षेत्र कृष्णा नगर से नामित होकर जब वहां कार्यकर्ताओं से मिलने पहुंची तो हर्षवर्धन ज़िंदाबाद के नारे ही सुनाई पड़े। जैसे ही किरण बेदी बोलने के लिए खड़ी हुई, मंच पर खड़े कार्यकर्ता को बाकी कार्यकर्ताओं से अपील करनी पड़ी कि वे किरण बेदी को सुन लें एक बार। बीच बीच में किसी ने बेदी को व्यंग्यातमक धन्यवाद भी कर दिया ताकि वो बोलना बंद करें।
कोर्ट-कचहरी का पहला चक्कर
'अरे भैया कहां कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ते हो'... हम सब कोर्ट कचहरी जाने को चक्कर के साथ जोड़ कर ही बोलते हैं। मतलब यह तो तय ही मान लिया कि आपको चक्कर काटने पड़ेंगे। आपको इंतज़ार करना पड़ेगा, आपका बहुत सारा वक़्त ज़ाया होगा और फिर भी किसी समाधान की कोई गारंटी नहीं होती और इस सबके बावजूद कोर्ट में भीड़ कभी कम नहीं होती। लोगों का न्याय प्रक्रिया में विश्वास बराबर बना हुआ है।
वकीलों के परिवार से होकर भी मैंने कभी असल कोर्ट नहीं देखा था। कभी पाला ही नहीं पड़ा। लेकिन यह ज़रूर पता था कि फिल्मों में दिखाए जाने वाले किलेनुमा कोर्ट असल में नहीं होते। एक कोर्ट आपके घर के स्टोर रूम के साइज का भी हो सकता है।
हुआ कुछ यूं कि होली से कुछ दिन पहले मैं कैलाश कॉलोनी मेट्रो स्टेशन के पास खड़ी थी। गाड़ी में कुछ दिक्कत थी तो उसे वहां ठीक करवा रही थी। एकदम से पता नहीं कहां से एक पानी का गुब्बारा धपाक से मुंह पर लगा। कुछ सेकेंड में थोड़ा होश आया तो देखा कि एक कार में 3-4 लड़के थे और वहीं से गुब्बारा फेंका गया था। वे लोग कार में कुछ सेकेंड रुके और कुछ अंग्रेजी वाली गालियां देकर उन्होंने कार चला दी।
अब इस तरह की स्थितियों में अक्ल कभी-कभी ही काम करती है और खुदा की रहमत से मेरी कर गई। मैंने गाड़ी का नंबर नोट कर लिया। हालांकि पूरा नंबर नोट नहीं कर पाई, लेकिन गाड़ी का रंग और मॉडल भी देख लिया था। उसी वक़्त मैंने 100 नंबर पर फ़ोन किया। उसके बाद वहां खड़े कई आदमियों ने बारी-बारी से आकर पूछा कि ओह, आपको गुब्बारा मारा और हलकी सी मुस्कान के साथ चलते बनते। 10 मिनट बाद एक पीसीआर वैन आ गई और मैंने उन्हें पूरा घटनाक्रम बताया। उन्होंने उस वक़्त सब जानकारी ब्रॉडकास्ट तो कर दी, लेकिन कुछ सुराग मिला नहीं। उसके बाद मेरे पास थाने से फ़ोन आया और मैंने जाकर एफआईआर दर्ज करवा दी। एसएचओ साहब ने कहा कि मजिस्ट्रेट के सामने भी बयान देना होगा। मैंने हामी भरी और वापस आ गई।
खैर, ऐसे मामलों में मैं घरवालों को काम निपटा कर ही जानकारी देती हूं, वरना उन्हें हर चीज़ 'चक्कर' और 'सर दर्द मोल लेना' लगता है। कुछ दोस्तों से साझा किया तो उन्होंने कह दिया कि तुम्हारा वक़्त कीमती है, क्यों कोर्ट वोर्ट में वक़्त ख़राब करना, कहां धक्के खाती फिरोगी, कुछ होता नहीं है, वगैरह-वगैरह।
अपनी नागरिक ज़िम्मेदारियों को लोग सिर दर्द ही समझते हैं। अभी हाल ही में मैं भूमिहीनों और किसानों के आंदोलन को कवर कर रही थी। राजस्थान के एक छोटे से गांव की महिला मुझे अपनी लिखित शिकायतों की चिट्ठियों के पुलिंदे दिखा रही थी जो उसने प्रशासन को लिखी थीं। मैंने दोस्तों की बात सुनी तो सही, लेकिन उस महिला की शिकायत के पन्ने पर लगा अंगूठे का निशान मेरी आंखों के सामने घूम गया। आखिर उस गरीब, अनपढ़, साधन विहीन औरत ने अपनी ज़िम्मेदारी तो निभायी थी। मुझे भी निभानी थी, फिर उसके बाद जो हो सो हो।
आज एफआईआर के एक हफ्ते बाद मजिस्ट्रेट के सामने मेरा बयान होना था। कोर्ट इतना बड़ा था कि जिस कमरे में मुझे जाना था, उसको ढूंढ़ने में पसीने छूट गए। 12:30 का वक़्त दिया गया था, लेकिन एक बजे तक भी नंबर नहीं आया। मजिस्ट्रेट ने कहा कि लंच के बाद दो बजे बयान दर्ज होगा। 2:30 बजने को आए थे पर इंतज़ार ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा था। भूख लग रही थी, ऑफिस के लिए लेट हो चुकी थी। मैं भी सोचने लगी कि सच में मुसीबत ही है। सरकारी काम ऐसे क्यों होते हैं।
फिर सरकारी से मुझे याद आया कि एक सरकारी हॉस्पिटल में मैं भी काम करती थी। सुबह से मरीज़ों का जो तांता लगता था कि कई मरीज़ों को लौटाना पड़ता था। उनका नंबर ही नहीं आता था। लेकिन अगले दिन फिर आना उन मरीज़ों की मजबूरी थी। कसूर हमारा भी नहीं था। मरीज़ ज़्यादा होते थे, डॉक्टर कम, मरीज़ों के इलाज वाली चेयर भी कम होती थी। अभावों के बावजूद जितना हो सकता था, करते थे।
यह सोच ही रही थी कि मेरा नंबर आ गया। मेरा बयान मजिस्ट्रेट के ऑफिस में हुआ अकेले में। मैं गई तो मजिस्ट्रेट ने पूछा कि हिंदी में बोलोगी या अंग्रेजी में। मैंने कहा कि दोनों में से किसी भाषा में बुलवा लीजिए, दोनों में बराबर ख़राब हूं। उन्होंने मुझे समझाया कि आपको यहां इसलिए लाया गया है ताकि आप किसी भी बाहरी दबाव के बिना अपना बयान लिखवा सकें।
वहां से निकलते हुए मैंने सोचा कि जितनी देर में इन्होंने मेरा पूरा बयान लिया, उतने वक़्त कोई ना कोई बाहर इंतज़ार कर रहा होगा और कोर्ट कचहरी को चक्कर की उपमा देते हुए खुद के फैसले को कोस रहा होगा। लेकिन मजिस्ट्रेट ने नियम के अनुसार काम किया और उसमें वक़्त लगता है। मेरे साथ आए कांस्टेबल को थोड़ा सी डांट भी लगाई कि एक हफ्ता हो गया है और आपने गाड़ी की शिनाख्त नहीं की है।
असल में कोर्ट कचेहरी में जाने से कौन डरता है, हम जैसे मध्यम वर्गीय लोग ही। गरीब नहीं डरता है। उसे आदत होती है लाइन में लगने की, इंतज़ार करने की, डांट खाने की। हमें लगता है कि हम कहां इनके साथ लाइन में लगेंगे। फिर हम खुद को तसल्ली देते हैं कि अरे छोटी सी तो बात थी, हमने ही ठेका तो नहीं लिया समाज सुधारने का, हमारे पास इतना टाइम नहीं है, पुलिस और कोर्ट कुछ करती नहीं है। लेकिन मैंने पुलिस और कोर्ट के पास जाने का फैसला लिया था क्योंकि मैं इसे छोटी बात नहीं समझती थी। पत्रकार हूं और दिल्ली के असुरक्षित माहौल के ज़िम्मा सिर्फ पुलिस का नहीं होता। अगर आप अपने कम्फर्ट के लिए छोटी बातों को नज़रअंदाज़ कर के चुप बैठ जाएंगे तो पुलिस खुद जाकर तो एक्शन नहीं लेगी ना। भले ही अब भी कोई एक्शन ना हो लेकिन मैं कम से कम राजस्थान की उस गरीब अनपढ़ औरत जितनी हिम्मत तो दिखा ही सकती हूं। और आप भी।
NH10 से कौन-कौन गुजरा...
'ऑनर किलिंग' से मेरा परिचय पहली बार आठवीं क्लास में हुआ था। हर रोज की तरह स्कूल में प्रार्थना हुई, गायत्री मंत्र, वो रोज की "भारत हमारा देश है…इसके सुयोग्य अधिकारी बनने का हम प्रयत्न करेंगे" वाली शपथ जो मैं ही दिलाती थी स्कूल में... और उसके बाद रूटीन से कुछ अलग घटा। स्कूल के प्रिंसिपल ने एक लड़की की मौत की खबर दी और बिना मौत की वजह बताये स्कूल में एक दिन की छुट्टी कर दी गयी।
स्कूल छोटा था, आसपास के बच्चे ही पढ़ते थे और इसलिए हर किसी को पता था कि क्या हुआ है। मेरे दोस्तों ने मुझे बताया कि उस लड़की को उसके मां-बाप ने ही मार दिया था। उस लड़की को मैं अच्छी तरह जानती थी, दीदी बुलाती थी। खबर से इतनी सहमी हुई थी कि घर आकर मां की गोद में बैठ कर रोने लगी। सच कहूं तो मेरी मां के चेहरे पर भी सहानुभूति नहीं थी, उस लड़की के लिए। इतनी बेरुखी मुझे अंदर तक झंझोड़ गयी।
मां इतनी कठोर कैसे हो सकती है और एक वो मां जिसने अपने हाथों से ही अपनी बेटी को जहर पिलाया होगा। फिर मेरे दिमाग में बस यही सवाल था कि जिस बात को छुपाने के लिए, अपनी इज्जत बचाने के लिए मां-बाप ने ये घिनौना कदम उठाया होगा, आखिर वो बात तो सबको पता चल ही गयी थी, फिर मारने की वजह क्या थी। क्या बेटियां इतनी फालतू और अनचाही होती हैं कि 17 साल उनको पालने के बाद उसे मारने से किसी को फर्क ही ना पड़े।
शहर में लोग मरने-मारने में एका नहीं दिखाते। सिर्फ एक मूक हामी थी, मेरे शहर वालों की। लेकिन कुछ साल बाद एक और खबर मिली थी। इस बार मेरी मां के गांव से। एक लड़की को उसके चाचा ने गांव की गली में खड़ा करके गोली मार दी थी। लड़के को मारने के लिए पूरा गांव उतारू था। वहां खूब एका होता है। लड़की की लाश को किसी पड़ोसी की बग्गी में रख कर उसे फूंक आये। उस गांव में खूब आना जाना था और इसलिए उस गांव, गली और लोगों की तस्वीर बनाना मेरे लिए मुश्किल नहीं था। गांव में अब मिट्टी नहीं खून सूंघा जा सकता था। अचानक उन भोले-भाले कहे जाने वाले लोगों की मासूमियत की लाश भी सामने ही पड़ी थी। परिवार खुद को सरहद की किसी जंग से विजयी लौटा समझ रहा था लेकिन इस जंग में हद पार करने की हिमाकत उनके अपने बच्चों ने की थी।
ऑनर किलिंग की किसी भी खबर को उठा लीजिये, देखिएगा कि इस हद को पार करने वाले लड़के को मारने वाले भी क्या उसके अपने मां बाप थे? नहीं, किसी भी लड़के को उसके अपनों ने नहीं मारा। क्योंकि लड़का बहुत बड़ी पूंजी होता है। यहां अगर वो कत्ल, बलात्कार भी कर आये तो उसे बचाने के लिए घरवाले अपना सब दांव पर लगा देते हैं। लेकिन लड़की अगर प्यार और शादी भर ही करे तो उसको मारने के लिए प्लानिंग तक नहीं होती। सीधा सजा। उन्हें पता है कि समाज उन्हें रोकने कभी नहीं आएगा क्योंकि ये तो इज्जत का सवाल है। लड़के को भी लड़की वाले या गांव वाले ही मौत के घाट उतारते हैं। सिर्फ प्यार करना ही गुनाह नहीं माना जाता, किसी दलित लड़के के स्वर्ण से प्यार करने पर अलग दफाएं लगती हैं। वहां उसके परिवार वाले भी सजा पाते हैं। उसकी बहनों के साथ बलात्कार होते हैं।
मेरा नाम मोनिका लेविंस्की है...
"मेरा नाम मोनिका लेविंस्की है। हालांकि मुझे कई बार कहा गया कि मैं अपना नाम बदल लूं। कई बार पूछा गया कि अब तक क्यों नहीं बदला, लेकिन मैंने नहीं बदला। मैं ही वो पहली इंसान हूं, जिसने अपनी इज़्ज़त ऑनलाइन शेयरिंग के ज़रिये खोयी, जबकि उस वक़्त फेसबुक, ट्विटर नहीं थे, लेकिन ई-मेल और न्यूज़ वेबसाइट तब भी थीं। मैं जब भी टीवी देखती, जब भी ऑनलाइन जाती, मुझे गन्दी गालियों से नवाज़ने वाले लोगों की भरमार थी। भद्दे गानों में मेरा नाम आता था। बस एक ही बात कानों में गूंजती थी - मैं मरना चाहती हूं (I want to die)।"
16 साल बाद 'फोर्ब्स' के एक कार्यक्रम के दौरान मोनिका लेविंस्की मीडिया से जब मुखातिब हुईं, तब आपबीती सुनाते हुए अपने आंसू नहीं रोक पायीं। जी हां, ये वही मोनिका लेविंस्की है जो 1998 में अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से अपने प्रेम संबंधों के कारण सुर्ख़ियों में आ गई थीं। मोनिका महज़ 22 साल की थीं, जब व्हाइट हाउस में इंटर्न के तौर पर काम करने लगी थीं।
लेह, तुम खुदा का मॉडर्न आर्ट हो
ये कतई ज़रूरी नहीं कि कोई आपसे प्यार करे ही करे, ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी है आपका प्यार में होना। कुछ ऐसे ही दीवाने होते होंगे जो 'लेह' में तमाम दिक्कतों के बावजूद बस अपने प्यार से मिलने पहुंच जाते हैं। अब ये दिक्कतें क्या हैं, ये आपको वहां जाने से पहले ही कोई ना कोई ज़रूर बता देगा।
ऑक्सीजन की कमी, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, लम्बे दिन और वक़्त बिताने के बहाने कम। इसलिए दोस्तों को ज़रूर लेकर जाइयेगा।
खैर, मैं घूमने-फिरने की शौक़ीन बिलकुल नहीं हूं लेकिन इस साल सोचा है कि कुछ जगहें ज़रूर देखनी हैं। तो सबसे पहले लेह जाना तय हुआ। हवाई जहाज़ से सिर्फ 1 घंटे का सफर है। ज़्यादातर यायावर दीवाने बाइक पर जाना पसंद करते हैं और पूरा लेह इस तरह घूमने में उन्हें तकरीबन 15 दिन का वक़्त लगता है।
जैसे ही सुबह लेह एयरपोर्ट पर उतरे, आंखों ने जैसे कोई जाम पी लिया था और जो दिख रहा था वो बस नशा था। कहा गया था कि लेह पहुंचते ही आराम करना क्योंकि बहुत ऊंचाई पर बसा है। आपको मौसम के साथ तालमेल बैठाने में दिक्कत होती है। मुझे तो जाते ही नींद आ गयी थी क्योंकि उससे पहली रात मैं सोयी ही नहीं थी। उठने के बाद सब दोस्त बाहर निकले और पास ही शांति स्तूप की और बढ़े। चारों ओर इतना सुन्दर नजारा था कि बस सड़क पर ही लेट जाते थे। क्या करें, नशा ऐसा ही तो होता है। तभी तो वहां पर शराब, सिगरेट पीने वाले लोग नहीं मिले।
एक ही जगह पर आपको रेगिस्तान, पहाड़, नदियां, चट्टानें, और एक ही दिन में आपको बर्फ़बारी, धूप, छांव, बारिश देखने को मिल जाये तो आप यही कहेंगे कि लेह, तुम खुदा का मॉडर्न आर्ट हो। आखिर में खुदा ने लेह को बनाया होगा और अपनी सारी कलाकारी दिखा दी होगी। यहां रंग ज़्यादा नहीं हैं, शेड्स हैं। पहाड़ों के शेड्स, चट्टानों के शेड्स। लड़कियों के कपड़ों की अलमारी में भी इतने शेड्स नहीं होते। कोई यहां आए तो ज़रूर अगली ड्रेस यहां की वादियों की शेड्स से मिला कर लेगी।
दूध से ज़्यादा उजली बर्फ। कुफरी की तरह पीली नहीं। अच्छा है यहां वो खच्चर की सवारी नहीं होती। वरना आप उस बदबू में अपने मेट्रो शहर को ही याद करने लगते। रात को चांद यहां कुछ ज़्यादा ही मेहरबान होता है। रात को आसमान में अंगड़ाई लिए बादलों को आराम से देखा जा सकता है। चिनार के पेड़ भी एंटीना की तरह खड़े होकर इशारा दे रहे होते हैं कि हां, यही है वो जगह जहां धूप और चांदनी को ज़्यादा बरसना है।
ये जगह सिर्फ दीवानों के लिए है जो या तो यायावरी से प्यार करते हैं या शान्ति से। ये जगह उन लोगों के लिए बिलकुल नहीं है जो शिमला, मनाली जैसी किसी जगह की उम्मीद कर रहे होते हैं और खाली पैकेट सड़कों पर फेंक कर अपनी बुरी यादें इन वादियों के लिए छोड़ जाते हैं।
देखने को लेह में काफी जगहें हैं लेकिन ऐसी कोई जगह नहीं जहां आप जाकर महसूस करें कि वाह क्या जगह है। यहां के रास्ते ही हैं जो खूबसूरत हैं। इतने खूबसूरत की आप कहीं नहीं पहुंचना चाहते। बस चलते रहना चाहते हैं। ज़िन्दगी का मज़ा भी तो सिर्फ मंज़िल तक पहुंचने तक ही रहता है। फिर भी अगर जाना चाहें तो मैग्नेटिक हिल जाएं और जादू देखें कि कैसे कोई पहाड़ आपकी बंद गाड़ी को खींच रहा होता है। लेह पैलेस। कुछ पुराने बौद्ध मठ हैं।
एक वॉर म्यूजियम है जहां भारत-पाकिस्तान की लड़ाइयों के कुछ अवशेष संजोये हैं। पैंग गोंग नदी की ख़ूबसूरती तो आप सभी ने कई फिल्मों में देख ही ली होगी।
एक सुबह ऑक्सीजन की कमी से जल्दी आंख खुल गयी तो अजान सुन कर यकीन सा नहीं हुआ। बौद्ध धर्म का प्रसार तो वहां खूब हुआ ही है लेकिन एक बात जो देखने लायक है वो ये कि वहां संतोषी माता मंदिर, गुरुद्वारा, मस्जिद सब मौजूद हैं। एक जगह जहां कि जनसँख्या डेढ़ लाख भी नहीं है, वहां तकरीबन सभी मुख्य धर्मों ने अपने अनुयायी ढूंढ ही लिए हैं। जैसे टीवी पर आने वाले हर बन्दे को ट्विटर फॉलोअर मिल ही जाते हैं।
ज़्यादातर सब लोग हिंदी भी बोलते हैं। कुछ कुछ अंग्रेजी भी। अब यहां मुख्य तौर पर रोज़ी-रोटी टूरिज्म पर ही चलती है तो लोगों को हिंदी सीखनी ही थी। ये बताता है कि भाषा हमारी ज़रूरत है, गर्व का कारण नहीं। लेकिन इसकी गरिमा, गर्व पर आए दिन बहस होती ही रहती है। यहां के लोगों में काफी ईमानदारी है। अगर आप खड़डूंग ला जाएंगे जो कि दुनिया की सबसे ऊंची सड़क है जहां आप ड्राइव कर सकते हैं, इतनी ऊंचाई पर भी आपको 10 रुपये की चॉकलेट 10 रुपये में ही मिलेगी।
बताने को तो काफी कुछ है, लेकिन यहां से सिर्फ रेटिंग ले जाइये और खुद जाकर हैरान होइए कि क्या इससे खूबसूरत भी कुछ और होगा। अगर आप अपनी कोई बकेट लिस्ट बना रहे हैं तो लेह को ज़रूर शामिल करें। ये मॉडर्न आर्ट आपकी यादों में हमेशा के लिए छप जाएगा।
लेह, तुम खुदा का मॉडर्न आर्ट हो
ये कतई ज़रूरी नहीं कि कोई आपसे प्यार करे ही करे, ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी है आपका प्यार में होना। कुछ ऐसे ही दीवाने होते होंगे जो 'लेह' में तमाम दिक्कतों के बावजूद बस अपने प्यार से मिलने पहुंच जाते हैं। अब ये दिक्कतें क्या हैं, ये आपको वहां जाने से पहले ही कोई ना कोई ज़रूर बता देगा।
ऑक्सीजन की कमी, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, लम्बे दिन और वक़्त बिताने के बहाने कम। इसलिए दोस्तों को ज़रूर लेकर जाइयेगा।
खैर, मैं घूमने-फिरने की शौक़ीन बिलकुल नहीं हूं लेकिन इस साल सोचा है कि कुछ जगहें ज़रूर देखनी हैं। तो सबसे पहले लेह जाना तय हुआ। हवाई जहाज़ से सिर्फ 1 घंटे का सफर है। ज़्यादातर यायावर दीवाने बाइक पर जाना पसंद करते हैं और पूरा लेह इस तरह घूमने में उन्हें तकरीबन 15 दिन का वक़्त लगता है।
जैसे ही सुबह लेह एयरपोर्ट पर उतरे, आंखों ने जैसे कोई जाम पी लिया था और जो दिख रहा था वो बस नशा था। कहा गया था कि लेह पहुंचते ही आराम करना क्योंकि बहुत ऊंचाई पर बसा है। आपको मौसम के साथ तालमेल बैठाने में दिक्कत होती है। मुझे तो जाते ही नींद आ गयी थी क्योंकि उससे पहली रात मैं सोयी ही नहीं थी। उठने के बाद सब दोस्त बाहर निकले और पास ही शांति स्तूप की और बढ़े। चारों ओर इतना सुन्दर नजारा था कि बस सड़क पर ही लेट जाते थे। क्या करें, नशा ऐसा ही तो होता है। तभी तो वहां पर शराब, सिगरेट पीने वाले लोग नहीं मिले।
एक ही जगह पर आपको रेगिस्तान, पहाड़, नदियां, चट्टानें, और एक ही दिन में आपको बर्फ़बारी, धूप, छांव, बारिश देखने को मिल जाये तो आप यही कहेंगे कि लेह, तुम खुदा का मॉडर्न आर्ट हो। आखिर में खुदा ने लेह को बनाया होगा और अपनी सारी कलाकारी दिखा दी होगी। यहां रंग ज़्यादा नहीं हैं, शेड्स हैं। पहाड़ों के शेड्स, चट्टानों के शेड्स। लड़कियों के कपड़ों की अलमारी में भी इतने शेड्स नहीं होते। कोई यहां आए तो ज़रूर अगली ड्रेस यहां की वादियों की शेड्स से मिला कर लेगी।
दूध से ज़्यादा उजली बर्फ। कुफरी की तरह पीली नहीं। अच्छा है यहां वो खच्चर की सवारी नहीं होती। वरना आप उस बदबू में अपने मेट्रो शहर को ही याद करने लगते। रात को चांद यहां कुछ ज़्यादा ही मेहरबान होता है। रात को आसमान में अंगड़ाई लिए बादलों को आराम से देखा जा सकता है। चिनार के पेड़ भी एंटीना की तरह खड़े होकर इशारा दे रहे होते हैं कि हां, यही है वो जगह जहां धूप और चांदनी को ज़्यादा बरसना है।
ये जगह सिर्फ दीवानों के लिए है जो या तो यायावरी से प्यार करते हैं या शान्ति से। ये जगह उन लोगों के लिए बिलकुल नहीं है जो शिमला, मनाली जैसी किसी जगह की उम्मीद कर रहे होते हैं और खाली पैकेट सड़कों पर फेंक कर अपनी बुरी यादें इन वादियों के लिए छोड़ जाते हैं।
देखने को लेह में काफी जगहें हैं लेकिन ऐसी कोई जगह नहीं जहां आप जाकर महसूस करें कि वाह क्या जगह है। यहां के रास्ते ही हैं जो खूबसूरत हैं। इतने खूबसूरत की आप कहीं नहीं पहुंचना चाहते। बस चलते रहना चाहते हैं। ज़िन्दगी का मज़ा भी तो सिर्फ मंज़िल तक पहुंचने तक ही रहता है। फिर भी अगर जाना चाहें तो मैग्नेटिक हिल जाएं और जादू देखें कि कैसे कोई पहाड़ आपकी बंद गाड़ी को खींच रहा होता है। लेह पैलेस। कुछ पुराने बौद्ध मठ हैं।
एक वॉर म्यूजियम है जहां भारत-पाकिस्तान की लड़ाइयों के कुछ अवशेष संजोये हैं। पैंग गोंग नदी की ख़ूबसूरती तो आप सभी ने कई फिल्मों में देख ही ली होगी।
एक सुबह ऑक्सीजन की कमी से जल्दी आंख खुल गयी तो अजान सुन कर यकीन सा नहीं हुआ। बौद्ध धर्म का प्रसार तो वहां खूब हुआ ही है लेकिन एक बात जो देखने लायक है वो ये कि वहां संतोषी माता मंदिर, गुरुद्वारा, मस्जिद सब मौजूद हैं। एक जगह जहां कि जनसँख्या डेढ़ लाख भी नहीं है, वहां तकरीबन सभी मुख्य धर्मों ने अपने अनुयायी ढूंढ ही लिए हैं। जैसे टीवी पर आने वाले हर बन्दे को ट्विटर फॉलोअर मिल ही जाते हैं।
ज़्यादातर सब लोग हिंदी भी बोलते हैं। कुछ कुछ अंग्रेजी भी। अब यहां मुख्य तौर पर रोज़ी-रोटी टूरिज्म पर ही चलती है तो लोगों को हिंदी सीखनी ही थी। ये बताता है कि भाषा हमारी ज़रूरत है, गर्व का कारण नहीं। लेकिन इसकी गरिमा, गर्व पर आए दिन बहस होती ही रहती है। यहां के लोगों में काफी ईमानदारी है। अगर आप खड़डूंग ला जाएंगे जो कि दुनिया की सबसे ऊंची सड़क है जहां आप ड्राइव कर सकते हैं, इतनी ऊंचाई पर भी आपको 10 रुपये की चॉकलेट 10 रुपये में ही मिलेगी।
बताने को तो काफी कुछ है, लेकिन यहां से सिर्फ रेटिंग ले जाइये और खुद जाकर हैरान होइए कि क्या इससे खूबसूरत भी कुछ और होगा। अगर आप अपनी कोई बकेट लिस्ट बना रहे हैं तो लेह को ज़रूर शामिल करें। ये मॉडर्न आर्ट आपकी यादों में हमेशा के लिए छप जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हिन्दी प्रेम?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब विदेशी सचिवों या प्रतिनिधियों से हिन्दी में बात किया करेंगे। हिन्दी में बात करने के लिए दुभाषिये का इस्तेमाल होगा, लेकिन इस खबर को पढ़ते ही कोई राय बनाने की बजाय थोड़ा इत्मीनान रख कर सभी पहलुओं पर नजर डाल लेनी चाहिए। शायद इसके बाद कोई राय बनाने की गुंजाइश ही ना रहे।
प्रधानमंत्री को अंग्रेजी से कोफ्त नहीं है। दिक्कत इतनी है कि वह अंग्रेजी बोलने में सहज महसूस नहीं करते। उन्हें अंग्रेजी ठीक-ठाक समझ आ जाती है। अंग्रेजी की प्रासंगिकता वह भली-भांति समझते हैं और इसलिए गुजरात में भी युवाओं को अंग्रेजी सिखाने के लिए SCOPE नामक पहल कर चुके हैं।
2007 में शुरू किया गया SCOPE अब तक 3,00,000 युवाओं को अंग्रेजी में ट्रेनिंग दे चुका है। टीम मोदी ने इसे भी गर्व से जोड़कर ही प्रचारित किया है। स्त्रोत नरेन्द्र मोदी की वेबसाइट है। गुजरात समिट में भी श्री मोदी अंग्रेजी में भाषण देते हुए दिखे और अपने मंत्रियों से भी अंग्रेजी में ही भाषण देने को कहा। हालांकि अंग्रेजी बोलते वक़्त उनमें आत्मविश्वास की कमी साफ़ झलक रही थी। 2010 में अपनी किताब के अनावरण पर अंग्रेजी में ही बात कर रहे थे। मोदी अपने ज्यादातर ट्वीट अंग्रेजी में ही करते हैं।
तो यह जाहिर है कि यह हिन्दी अस्मिता के लिए उठाया गया साहसिक कदम तो कतई नहीं है। उनका अंग्रेजी में हाथ तंग है, इसलिए उन्हें दुभाषिये की जरूरत है और इस बात को सरलता से देखा जाना चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी अंग्रेजी जानते थे और विदेशी प्रतिनिधियों से अंग्रेजी में ही बात करते थे, लेकिन देश को हिन्दी में संबोधित करते थे। कई लोगों के जेहन में श्री मोदी का करण थापर को दिया गया अधूरा साक्षात्कार अब भी होगा जहां मोदी टूटी-फूटी अंग्रेजी में ही अपने जवाब दे रहे थे। वैसे 2014 तक आते-आते शायद उन्हें अपनी इस कमी का एहसास हो गया होगा और उन्होंने अंग्रेजी मीडिया को भी हिन्दी में ही साक्षात्कार दिए। अरविंद केजरीवाल अंग्रेजी में माहिर हैं, लेकिन फिर भी वह अंग्रेजी मीडिया से हिन्दी में बात करना पसंद करते हैं। अरविंद केजरीवाल के समर्थक इसे हिन्दी प्रेम से जोड़ कर देख सकते हैं, लेकिन उनकी कमजोरी को भी उनके पक्ष में धकेलने के लिए टीम मोदी की कवायद जारी है। मुलायम सिंह यादव ने भी बिना सोचे-समझे इसका स्वागत कर दिया है।
भाषा को सम्मान से जोड़ कर क्यूं देखा जाना चाहिए? हिन्दी को अंग्रेजी से श्रेष्ठ बताना उसी तरह है जैसे उर्दू को हिन्दी से या अवधी को तमिल से। भाषा का उद्देश्य सिर्फ अपनी बात दूसरे को समझाना है फिर चाहे आप कोई भी भाषा बोलते हों, कोई भाषा हीन नहीं। नरेन्द्र मोदी अपने इस कदम से ना काबिल-ए-तारीफ़ हैं और ना ही अंग्रेजी कम आने की वजह से मज़ाक के पात्र।
देखा जाए तो भाषा अपना गर्व या अपना वर्चस्व अपने देश की अर्थव्यवस्था से हासिल करती है। अंग्रेजी का मूल यूरोप में है, पर इसे लोकप्रिय करने का श्रेय अमेरिका को जाता है। मुमकिन है अगर जापान सुपरपावर होता तो शायद जापानी अंग्रेजी की तरह लोकप्रिय होती। हिन्दुस्तान के भीतर भी यही बात देखी जा सकती है। भोजपुरी और तमिल के सम्मान में अंतर तो है ही। बीजेपी के ही सांसद मनोज तिवारी भी कह चुके हैं कि भोजपुरी को संविधान में स्थान दिलाएंगे। भाषा को इस समय संविधान में जगह मिले ना मिले, यह गैर-ज़रूरी मुद्दा है। हिन्दी जैसी भाषाएं कॉर्पोरेट दुनिया में अपनी जगह खो चुकी हैं।
16वीं लोकसभा में सुषमा स्वराज, उमा भारती और डा. हर्षवर्धन संस्कृत में शपथ लेते नजर आये। वैसे पुराने जमाने में संस्कृत मुख्य तौर पर ब्राह्मणों की भाषा मानी जाती थी।
विविधता से भरे इस देश में प्रधानमंत्री के लिए किसी एक भाषा को स्वीकार करना कठिन होगा। अंग्रेजी की जरूरत को खारिज करना भी उनके लिए मुश्किल है। तो इस वक़्त नरेन्द्र मोदी के दुभाषिये का सहारा लिए जाने को हिन्दी प्रेम या हिन्दी अस्मिता से जोड़कर उनके चाहने वाले उन्हें पसोपेश में डाल देंगे। क्या हिन्दी को कॉर्पोरेट जगत में प्रासंगिक कर पाएंगे प्रधानमंत्री?
बुर्क़े वाली आदर्श लड़की
स्कूल के वक़्त मेरे पिता आदर्श लड़की की परिभाषा बताते थे। लड़की जो आंखें झुका कर रहे, सलवार-कमीज़ पहने, फालतू बात ना करे। मैंने आंठवी, नौवीं में ही सूट पहनना शुरू कर दिया था। स्कूल में कभी किसी लड़के से बात करने की हिम्मत तक ना हुई। किसी ने कभी कोशिश भी की तो रोने लगती थी।
आत्मविश्वास की धज्जियां सबसे पहले घरवाले ही उड़ा देते हैं। लोग तारीफ़ करते कि आपकी बेटी बड़ी अच्छी है, कभी बाहर दिखाई नहीं देती, घर के गेट पर भी खड़ी नहीं होती। सब तारीफ़ करते तो मुझे लगने लगा कि मैं सही कर रही हूं। मैं आदर्श लड़की हूं। दिमाग में फिट की गयी वर्जनाएं कैसे और कितने वक़्त बाद टूटी, ये एक लम्बी कहानी है। लेकिन अगर ना टूटती तो शायद मैं खुद को कभी नहीं जान पाती और ना मेरे मां-बाप कभी मुझ पर गर्व कर पाते।
ये कहानी बुर्क़े के साथ भी है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है अगर लड़कियां कहती हैं कि वो बुर्का अपनी मर्ज़ी से पहन रही हैं। मर्ज़ी से लड़कियां शादी के बाद अपना उपनाम भी बदल लेती हैं, सबको खुश रखने के लिए अपनी इच्छाएं भी मार लेती हैं क्योंकि उन्हें महानता की किताब बचपन से ही पकड़ा दी जाती है। किसी काम को परंपरा बनने में समय लगता है और उतना ही वक़्त उसके टूटने में भी। कुछ लड़कियों का बुर्का पहनना उनके घर से निकलने और पढ़ने के लिए शर्त है। वो ये शर्त मानती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वो कम से कम पढ़ तो पा रही हैं, बाहर तो निकल पा रही हैं। हरियाणा में पली-बढ़ी हूं, इसलिए जानती हूं कि लड़कियों को पढ़ाई करने देना भी एहसान की तरह पेश किया जाता है।
इससे पहले कि बुर्क़े के साथ इस्लाम को जोड़ने की बात हो, मैं पहले ही कुछ बातें साफ़ कर देना चाहती हूं। बुर्क़े पर मैंने इस्लाम के कई जानकारों से बात की। धर्म से इसका क्या लेना-देना है, उसके लिए कुरान का सहारा लिया। फेसबुक पर लिखा और इसके समर्थकों और विरोधियों को भी सुना। अगर बात इस्लाम से बुर्क़े के नाते की है तो इस पर इस्लाम के जानकार खुद एकमत नहीं हैं। बुर्क़े के बारे में क़ुरान में नहीं लिखा है। कपड़ों को लेकर लिखा है कि औरत और मर्द दोनों को गरिमापूर्ण तरीके से अपने शरीर को ढकना चाहिए। जब खुद इस्लाम बुर्क़े पर एकमत नहीं है तो मैं धर्म से सम्बंधित चर्चा नहीं करुंगी।
बुर्क़े के पीछे तर्क दिया जाता है कि इससे लड़की बुरी नज़र से बची रहेगी। मैं बहुत आसानी से समझ सकती हूं कि उस लड़की के आत्मविश्वास का स्तर कितना होगा। जिसे बचपन से ही पुरुषों से डराया जायेगा, वो जाकर उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर काम कैसे कर पायेगी। अभी पिछले ही साल प्री-मेडिकल टेस्ट के दौरान मुस्लिम लड़कियों ने हिजाब और पूरी बांह के कपड़े पहनने की इजाज़त मांगी। ये सीबीएसई के नियमों के खिलाफ था। लड़कियां इस नियम के खिलाफ कोर्ट में गयी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी बात मानने से इंकार कर दिया। मैं नहीं जानती कि उन लड़कियों ने परीक्षा दी या अपनी परंपरा का पालन किया। लेकिन मैं इतना ज़रूर जानती हूं कि अगर वो डॉक्टर बनती तो ऑपरेशन थिएटर में हिजाब और बुर्का पहन कर नहीं जा सकती थीं। किसी सरकारी या प्राइवेट हस्पताल में नौकरी करतीं तो सिर्फ महिला मरीज़ को देखने का विकल्प नहीं चुन सकती थीं। अगर कोई लड़की वकील बनेगी तो अदालत में मर्दों से जिरह करने का आत्मविश्वास कैसे ला पायेगी जिसमें बचपन से ही बुरी नज़र का खौफ भरा गया हो। बुर्का पहनकर पत्रकारिता कर पायेगी? हिजाब पहन कर लड़कियां 'एंकर' बनी हैं लेकिन अपने दफ्तरों में बुरी नज़र से बचने के लिए उन्हें लड़ना ही पड़ता है। ईरान की शीना ईरानी का केस उठा लीजिये। हां, खुद को प्रगतिशील कहने वाले मिडिल क्लास को एक काम बड़ा सुरक्षित लगता है, वो है अध्यापिका का ताकि लड़की पढ़ा-लिखा कर दोपहर तक घर आ जाये और फिर अपना परिवार संभाले। उसे पुरुषों से ज़्यादा बात करने की भी ज़रूरत नहीं होगी और दूसरा उनके हिसाब के मर्यादित कपड़ों में ही पढ़ा भी सकती है।
मेरी दोस्त का क्लिनिक है। मुख्य रूप से वहां अफगानिस्तान से आई मुस्लिम महिलाएं ही इलाज करवाने आती हैं। वो अपना इलाज महिला डॉक्टर से ही करवाती हैं। वो खुद भी किसी पुरुष डॉक्टर से इलाज करवाने में सहज नहीं हैं और ना ही उनके शौहर इसकी इजाज़त देते हैं। मेरी दोस्त ने एक दिन बिना बाज़ू का कुर्ता पहना तो एक महिला मरीज़ ने उससे पूछ लिया कि क्या उसको ऐसे कपड़ों में शर्म नहीं आती है। कपड़े किस तरह हम सबकी मानसिकता बनाते हैं, ये इस उदाहरण से समझा जा सकता है। मैं खुद दिल्ली के उस क्षेत्र में रहती हूं जहां अफगानिस्तान से आये मुस्लिम लोग रहते हैं। महिलाएं तो हिजाब और बुर्कों में चलती हैं लेकिन अनेक पुरुषों की आंखें दिल्ली की लड़कियों पर गड़ी होती हैं। हमारा बिना हिजाब का होना ही उनके हिसाब से बुलावा है। ये समझना उतना ही सरल है जैसे हमारे देश के कुछ पुरुष अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया की लड़कियों को या उत्तर-पूर्व भारत से आई लड़कियों को उपलब्ध समझते हैं।
जब भी बुर्क़े पर आप बात करना चाहते हैं तो मुख्य रूप से मुसलमान पुरुष ही इसके बचाव में बढ़-चढ़ कर आते हैं। कभी वो कहते हैं कि लड़कियां अपनी मर्ज़ी से पहनती हैं, हम नहीं थोपते। अगर आप नहीं थोपते हैं तो बचाव करने का कारण क्या है। आपके लिए तो बुर्क़े की प्रासंगिकता होनी ही नहीं चाहिए। बुर्क़े के बचाव में वो बिकिनी का सहारा लेते हैं। मैंने आज तक अपने दफ्तर में, अपने पड़ोस में, बाज़ार में किसी औरत को बिकिनी पहन कर घूमते नहीं देखा। अगर हम बुर्का नहीं पहनते हैं, सिर्फ साधारण कपड़े पहनते हैं तो क्या हम इज़्ज़त के लायक नहीं हैं? ज़ाहिर है बुर्क़े का समर्थन करने वाले पुरुष लड़कियों के कपड़ों से उसके चरित्र का आंकलन करते ही होंगे। हो सकता है उन्हें ये डर भी सता रहा हो कि कहीं बुर्क़े की वजह से उनके धर्म के बारे में कोई गलत धारणा ना बन जाये। बेहतर है कि गलत परंपरा को बदला जाये ना कि उसे सही साबित करने की कोशिश की जाये। ऐसी गलत परम्पराएं हर धर्म और समाज में हैं। खाप, जातिगत भेदभाव और भ्रूण हत्या जैसी परम्पराओं पर भी समाज पर उंगलियां उठती ही हैं। उन पर मर्ज़ी का ठप्पा तो नहीं लगाया जा सकता।
उत्तर प्रदेश के फूलपुर गांव में रिपोर्टिंग के दौरान एक दलित बुज़ुर्ग, ब्राह्मण के आंगन में ज़मीन पर आकर बैठ गया। कई बार कहने पर भी चारपाई पर नहीं बैठा। हमने घर के मालिक से पूछा कि क्या आपकी वजह से नीचे बैठ रहे हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि हमने तो नहीं कहा, हम मानते ही नहीं हैं ये सब, ये इन्हीं की मर्ज़ी है। ये पूरी घटना हम प्राइमटाइम में दिखा चुके हैं। अब इसमें कानून किसको दोष दे पायेगा। पिछले साल एक पीड़ित दलित महिला अपनी आप-बीती बताते हुए अफसरों के सामने ज़मीन पर बैठी रही और वो तस्वीर हम सबने देखी। कुछ लोगों को तो उसमें भी कुछ असाधारण दिखाई नहीं दिया।
अगर नियम लगाने ही हैं, धार्मिक बनाना ही है तो अपने बेटों को भी बना दीजिये। धर्म की निशानियों को बचाने का ठेका महिलाओं ने ही तो नहीं लिया। अगर आपने उन्हें दिया है तो क़ाज़ी, मौलाना, पंडित उन्हें भी बना दीजिये। अपने बेटों को भी हर वक़्त टोपी पहनने को कहिये, दाढ़ी रखने को कहिये, देखते हैं कि कितना निभा पाएंगे। ज़रा एक बार लड़कों के हॉस्टल 8 बजे बंद करने की हिम्मत दिखाइए। लड़कियों को बुर्क़े, हिजाब, घूंघट में कितना ही डाल लीजिये लेकिन ये ऐसा ही होगा कि अगर कबूतर बिल्ली को देख कर अपनी आंखें बंद कर ले और ये भ्रम पाल ले कि बिल्ली उसे देख नहीं सकती।
बुर्का हटाने से महिला का सशक्तिकरण नहीं हो जायेगा लेकिन इस बात में दो राय नहीं हैं कि महिला के सशक्तिकरण में ये एक रोड़ा ही है। धर्म चाहे अलग अलग हों लेकिन समाज एक ही है और इस समाज की प्राथमिकता में पुरुष ही रहता है। ऐसी बहुत सी परंपराएं हैं जिन पर हम सवाल ही नहीं करते क्योंकि हमें वो बहुत स्वाभाविक और प्राकृतिक लगता है। मैं लोगों को समझाती हूं, लड़ती हूं, दुखी भी होती हूं लेकिन मैं रुक नहीं सकती हूं क्योंकि मेरी आज़ादी भी लोगों की निरंतर लड़ाई का नतीजा है। लोगों ने लगातार भ्रूण हत्या के खिलाफ लिखा, लोगों ने लगातार महिलाओं की शिक्षा और काम करने की आज़ादी पर लिखा, तभी शायद आज मैं आत्मनिर्भर हूं।
महिलाओं को देवी का झांसा देकर सब बलिदान उन्हीं से करवा लिए जाते हैं। सुरक्षा की दुहाई भी वही झांसा है जो लड़कियों को आगे बढ़ने से रोकता है।
आरक्षण की व्यवस्था को लेकर कैसा भ्रम!
आप आरक्षण के पक्ष में हो सकते हैं या खिलाफ हो सकते हैं, इसमें कोई समस्या नहीं है। समस्या तब होती है जब आप अपनी बात को गलत तथ्यों के साथ रखते हैं। एक मेडिकल की छात्रा रही हूं, थोड़ा सा 'करेक्ट' कर सकती हूं। एक मेडिकल संस्थान में दाखिले के बाद सभी को एक ही तरह की परीक्षा देनी होती है। सभी के लिए उसे पास करने का 'क्राइटेरिया' भी समान होता है। मतलब जितने भी विद्यार्थी हैं, वे जब डिग्री लेते हैं तो समान होते हैं। किसी के नंबर कम, ज्यादा हो सकते हैं लेकिन वे इलाज करने के क़ाबिल होते हैं। इसलिए 'आरक्षण वाला डॉक्टर' एक दुष्प्रचार है। आरक्षण वाला डॉक्टर कोई नहीं होता।
उससे पहले जब आप एडमिशन के लिए टेस्ट दे रहे होते हैं तो जरूर आरक्षण होता है। एक जनरल कैंडिडेट को पता है कि उसके पास कितनी सीट हैं जिन पर उसे मुकाबला करना है। परीक्षा के नतीजे आने के बाद आरक्षण को दोष देना बहुत सामान्य प्रतिक्रिया है। आपको एक जनरल कैंडिडेट ने पछाड़ा है, लेकिन आप खुद की आरक्षण वाले से तुलना करने लगते हैं। आरक्षण वाले आपसे कम नंबर जरूर लाते हैं प्रवेश परीक्षा में, लेकिन उनके लिए भी न्यूनतम सीमा रखी गई है। जनरल के लिए क्वालीफाइंग 50% है और आरक्षित के लिए 40% , इसलिए ऐसा कभी नहीं होता कि 3-4 नंबर लाने वाला उम्मीदवार डॉक्टर बनने चला है। आप इस बात को सीबीएसई की वेबसाइट पर पढ़कर तसल्ली कर सकते हैं। यह बात मैंने सीबीएसई-पीएमटी परीक्षा के हिसाब से कही है। वैसे भी इस दौर में जब राज्य परीक्षाओं में इतना घपला हो, प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की बाढ़ हो, तब आप कैसे सिर्फ आरक्षण को अपने साथ हुए अन्याय के लिए दोषी ठहरा सकते हैं।
UPSC में पहली रैंक टीना डाबी ने ली है। वह एक आरक्षित समाज से आती हैं। लेकिन एक लड़के अंकित का कहना है कि उसके नंबर टीना से ज्यादा थे पहले पेपर में। लेकिन अंकित को जनरल वाले ने पछाड़ा है, टीना डाबी ने नहीं। यह बात भी सच है कि टीना अगर जनरल से अपना फॉर्म भरतीं तो उनका एडमिशन नहीं होता। दूसरा यह भी होता है कि कई बार आपके नंबर नेगेटिव मार्किंग में कट जाते हैं, दूसरा कैंडिडेट उन सवालों को अटेम्पट ही नहीं करता तो आखिर में उसके नंबर आपसे ज्यादा बन जाते हैं। दरअसल, ऐसे कई सवाल हैं जो दोनों को ही नहीं आते हैं। इससे आप दोनों ही नालायक नहीं साबित हुए। लेकिन संसाधन कम हैं तो परीक्षा इसी तरह ली जा सकती है।
कभी आप भी सोचकर देखिए, महिलाएं 'राइट' हैं या 'लेफ्ट'...?
अपवादों को छोड़ दें तो महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर ज़्यादा चर्चा होती नहीं है। कभी सोचा है कि आखिर महिलाओं का राजनीतिक झुकाव क्या है...? क्या वह किसी ख़ास विचारधारा से प्रेरित होता है...?
मुझे कभी-कभी महसूस हुआ कि महिलाओं / लड़कियों के लिए दक्षिणपंथ (राइट-विंग) से खुद को जोड़ना शायद मुश्किल होता है। अगर किसी वक़्त भरोसा कर भी लें, तो ज़्यादा वक़्त समर्थन में रह नहीं पातीं। ऐसा सोचने के पीछे वजहें भी हैं। मसलन, आज की तारीख में अगर हम विश्व के किसी राइट-विंग नेता को देख लें, वह हमेशा महिलाओं के खिलाफ बयानबाज़ी करते नज़र आते हैं, संवेदनशील कम दिखाई देते हैं।
काम के दौरान मुझे नाइजेल फराज को जानने का मौका मिला। ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से अलग करने के लिए उन्होंने कैम्पेन किया था और नतीजे आने के बाद ऐसे भाषण देने लगे, जैसे सच में डंडे खाकर कोई आज़ादी पाई हो। यह इंग्लैंड की 'यूके इंडिपेंडेंस पार्टी' के नेता हैं, जो राइट-विंग पार्टी है। उन्हें लगता है कि जो मां हैं, वे बिज़नेस सेक्टर के लिए सही कर्मचारी नहीं हैं, पहले वे 'मैटरनिटी लीव' पर चली जाती हैं, फिर बच्चों में ध्यान देने लगती हैं। ऐसा ही उनकी पार्टी के दूसरे नेता स्टुअर्ट व्हीलर ने कहा था कि कितना भी कर लें, महिलाएं पुरुषों से पीछे ही हैं। नाइजेल एक बार कह चुके हैं कि महिलाओं को कोने में जाकर बच्चों को दूध पिलाना चाहिए, ताकि बाकी लोगों को शर्म न आए।
इसी पार्टी के किसी नेता ने राजनीति में आई महिलाओं के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया, क्योंकि वे अपना किचन साफ़ नहीं रख सकतीं। यह पार्टी समलैंगिकों के खिलाफ भी बोलती रही है। ऐसे ही कुछ बयान आप डोनाल्ड ट्रम्प के भी पढ़ सकते हैं, जो रिपब्लिकन पार्टी के हैं। किसी रिपोर्टर को वह 'बिम्बो' कह देते हैं - सुन्दर, लेकिन बेवकूफ लड़की। एक बार वह कह चुके हैं कि मीडिया कुछ भी लिखता रहे, उन्हें परवाह नहीं, जब तक उनके पास उनकी महिला मित्र है, और यकीन मानिए, उन्होंने अपनी महिला मित्र के लिए ऐसी संज्ञा का प्रयोग किया था, जो प्रकाशित करना भी हमारे लिए संभव नहीं। आप गूगल कीजिए, बहुत कुछ मिल जाएगा। भारत में राइट-विंग पार्टियों के कुछ नेता किस तरह की बयानबाज़ी करते हैं, आप जानते हैं। परम्पराओं से बंधी विचारधारा वाले नेता या आम लोग भी समलैंगिकों से चिढ़ते मिलेंगे, महिलाओं के खिलाफ भद्दी टिप्पणी भी आम बात है, दूसरे देश के तो कभी-कभी अपने देश के दूसरे राज्यों के लोगों से घृणा करते दिखेंगे।
विचार से न लड़ पाओ तो उसे धारा के खिलाफ खड़ा दिखाओ!
जेएनयू के छात्रों का विरोध प्रदर्शन इतना 'एलियन' क्यों नजर आता है. क्या आपने सच में देश और दुनिया के विरोध प्रदर्शन नहीं देखे हैं या जानबूझकर किसी नीति के तहत ऐसा कर रहे हैं? घेराव को 'बंधक बनाना' कहकर इतना नकारात्मक दिखाने की क्या वजह है? वीसी साहब तो बोलेंगे ही, लेकिन राजनीति और छात्र राजनीति पर लिखने-बोलने वालों को यह कौन सा नया शब्द ज्ञान आया है. क्या यह ज्ञान 2014 के बाद आया है. 2013 में दिल्ली में एक 5 साल की बच्ची के रेप के बाद एबीवीपी, एसएफआई वाले तब के गृहमंत्री शिंदे और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के घर का घेराव कर रहे थे, तब मंत्री किरेन रिजिजू ने इन छात्रों को पढ़ाई करने की नसीहत क्यों नहीं दी?
जेएनयू के वाइस चांसलर को बंधक नहीं बनाया गया, वे चाहते तो छात्रों पर पैर रखकर निकल जाते. लेकिन शायद उनकी अंतरात्मा उन्हें इस बात की इजाजत नहीं दे पाई. वर्ष 1989 में चीन सरकार की नीतियों के खिलाफ और लोकतंत्र के लिए जब हजारों छात्र विरोध प्रदर्शन कर रहे थे तो एक छात्र युद्ध टैंक के सामने आकर खड़ा हो गया. इस घटना का वीडियो रोंगटे खड़े कर देता है. टैंक में बैठा सिपाही भी उसे कुचलकर आगे नहीं बढ़ सका था. हालांकि इन विरोध प्रदर्शनों में हजारों छात्र मारे गए थे.
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कभी आप भी सोचकर देखिए, महिलाएं 'राइट' हैं या 'लेफ्ट'...?
अपवादों को छोड़ दें तो महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर ज़्यादा चर्चा होती नहीं है। कभी सोचा है कि आखिर महिलाओं का राजनीतिक झुकाव क्या है...? क्या वह किसी ख़ास विचारधारा से प्रेरित होता है...?
मुझे कभी-कभी महसूस हुआ कि महिलाओं / लड़कियों के लिए दक्षिणपंथ (राइट-विंग) से खुद को जोड़ना शायद मुश्किल होता है। अगर किसी वक़्त भरोसा कर भी लें, तो ज़्यादा वक़्त समर्थन में रह नहीं पातीं। ऐसा सोचने के पीछे वजहें भी हैं। मसलन, आज की तारीख में अगर हम विश्व के किसी राइट-विंग नेता को देख लें, वह हमेशा महिलाओं के खिलाफ बयानबाज़ी करते नज़र आते हैं, संवेदनशील कम दिखाई देते हैं।
काम के दौरान मुझे नाइजेल फराज को जानने का मौका मिला। ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से अलग करने के लिए उन्होंने कैम्पेन किया था और नतीजे आने के बाद ऐसे भाषण देने लगे, जैसे सच में डंडे खाकर कोई आज़ादी पाई हो। यह इंग्लैंड की 'यूके इंडिपेंडेंस पार्टी' के नेता हैं, जो राइट-विंग पार्टी है। उन्हें लगता है कि जो मां हैं, वे बिज़नेस सेक्टर के लिए सही कर्मचारी नहीं हैं, पहले वे 'मैटरनिटी लीव' पर चली जाती हैं, फिर बच्चों में ध्यान देने लगती हैं। ऐसा ही उनकी पार्टी के दूसरे नेता स्टुअर्ट व्हीलर ने कहा था कि कितना भी कर लें, महिलाएं पुरुषों से पीछे ही हैं। नाइजेल एक बार कह चुके हैं कि महिलाओं को कोने में जाकर बच्चों को दूध पिलाना चाहिए, ताकि बाकी लोगों को शर्म न आए।
इसी पार्टी के किसी नेता ने राजनीति में आई महिलाओं के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया, क्योंकि वे अपना किचन साफ़ नहीं रख सकतीं। यह पार्टी समलैंगिकों के खिलाफ भी बोलती रही है। ऐसे ही कुछ बयान आप डोनाल्ड ट्रम्प के भी पढ़ सकते हैं, जो रिपब्लिकन पार्टी के हैं। किसी रिपोर्टर को वह 'बिम्बो' कह देते हैं - सुन्दर, लेकिन बेवकूफ लड़की। एक बार वह कह चुके हैं कि मीडिया कुछ भी लिखता रहे, उन्हें परवाह नहीं, जब तक उनके पास उनकी महिला मित्र है, और यकीन मानिए, उन्होंने अपनी महिला मित्र के लिए ऐसी संज्ञा का प्रयोग किया था, जो प्रकाशित करना भी हमारे लिए संभव नहीं। आप गूगल कीजिए, बहुत कुछ मिल जाएगा। भारत में राइट-विंग पार्टियों के कुछ नेता किस तरह की बयानबाज़ी करते हैं, आप जानते हैं। परम्पराओं से बंधी विचारधारा वाले नेता या आम लोग भी समलैंगिकों से चिढ़ते मिलेंगे, महिलाओं के खिलाफ भद्दी टिप्पणी भी आम बात है, दूसरे देश के तो कभी-कभी अपने देश के दूसरे राज्यों के लोगों से घृणा करते दिखेंगे।
वो बूढ़ा प्रधानमंत्री…
आप राष्ट्रवादी हैं या देशप्रेमी? अंतर समझने की करें कोशिश
पब्लिक जी, आप सब नहीं जानते हैं
बुधवार को ही खबर आई कि देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ने विजय माल्या की बंद हो चुकी कंपनी किंगफिशर एयरलाइंस को दिए 1,200 करोड़ रुपये के कर्ज़ को अपनी बही के बट्टे खाते (वह कर्ज़, जिसकी वसूली संभव न हो) में दर्ज कर लिया है. एसबीआई के एक पूर्व चेयरमैन ने NDTV को बताया कि एयूसीए कैटेगरी में कर्ज़ों को डाल देना इसी बात का संकेत है कि बैंक कमोबेश किंगफिशर से कर्ज़ की वसूली की उम्मीद छोड़ चुका है.जिसे संघर्ष करना है, करे. लेकिन सही वजह जानकर करे. SBI की चेयरमैन हों या बाकी बैंकर्स, सरकार के फैसले से काफी खुश हैं. हालांकि यूपीए सरकार के दौरान भी इन्हें कभी सरकार के फैसलों के खिलाफ बोलते देखा नहीं गया. ये बात भी खुल चुकी है कि बैंकों ने रिस्क लेकर उद्योगपतियों को काफी पैसा उधार दिया.Non-Performing asset(NPA) जिसे अगर आसान भाषा में समझें तो इसका मतलब है कि बैंकों ने काफी उधार दिया ब्याज़ पर, लेकिन वो ब्याज़ आना तो बंद हो ही गया, साथ ही मूल वापस आने की गुंजाइश भी कम ही है. तो आप ये जान लीजिये, फिलहाल इस NPA की वजह से पूरी दुनिया में भारत सबसे बुरी अर्थव्यवस्था के तौर पर खड़ा है.